Saturday, 16 May 2015

lajja Aur Vatsalya

एक दिन दोपहर में
निकली वो घर से ,
धूप  में
तपती   धरती   में ,
उसके  नंगे  पांवों  में
बन  रहे  छाले
उसको  रोक  न  सके
आगे  बढ़ने  से !

अपने  घूँघट  को 
बढ़ाकर
उसे  अपने  दातों  में
दबाकर
भागी  जा  रही  थी  वो !

उसे  अपनी  मर्यादा  को
अपनी  लज्जा  को
अपने  नैतिक  मूल्यों  को
अपने  घूँघट   के   परदे   में
बचाना  था !
और  बड़े  बुजुर्गो  से
अपनी  लज्जा  को
छुपाना  था !

फिर  भी  वो  धूप में
बढे  जा   रही  थी
जलते  मौसम  में
अपने  नंगे   पैरो   में
पड़े  हुवे  छालों  को
अनदेखा  करते  हुवे
बढ़ी  जा  रही   थी !

आगे  आगे
हर  तरफ
हर  जगह
अपने  घुघट  को
हाथो  से  उपर  करके
देख  रही   थी
हर  गली  में
ढूढ  रही  थी ,

अपने  लाल  को
जो  खेलते  खेलते
घर  से  कहीं  दूर  चला  गया  था !!

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