एक दिन दोपहर में
निकली वो घर से ,
धूप में
तपती धरती में ,
उसके नंगे पांवों में
बन रहे छाले
उसको रोक न सके
आगे बढ़ने से !
अपने घूँघट को
बढ़ाकर
उसे अपने दातों में
दबाकर
भागी जा रही थी वो !
उसे अपनी मर्यादा को
अपनी लज्जा को
अपने नैतिक मूल्यों को
अपने घूँघट के परदे में
बचाना था !
और बड़े बुजुर्गो से
अपनी लज्जा को
छुपाना था !
फिर भी वो धूप में
बढे जा रही थी
जलते मौसम में
अपने नंगे पैरो में
पड़े हुवे छालों को
अनदेखा करते हुवे
बढ़ी जा रही थी !
आगे आगे
हर तरफ
हर जगह
अपने घुघट को
हाथो से उपर करके
देख रही थी
हर गली में
ढूढ रही थी ,
अपने लाल को
जो खेलते खेलते
घर से कहीं दूर चला गया था !!
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